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श्रीमद भगवद गीता पाठ - अध्याय १



बहुत सारे कृष्ण भक्त एकादशी और अन्य अवसरों पर पर संपूर्ण भगवद गीता पढ़ने की इच्छा रखते हैं। अपने समय और परिस्थितियों के आधार पर वे कौन से भाग पढ़ेंगे ये तय करते है जैसे  कुछ लोग जिनके पास समय हैं  एक-एक शब्द को पढ़ते हैं जिसमे संपूर्ण अनुवाद भी सम्मिलित होता है , कुछ अन्य लोग केवल पढ़ने के लिए छंद (श्लोक) और/या अंग्रेजी या हिंदी (या मातृभाषा) अनुवाद ही  पढ़ते  हैं। 

मैं हर एकादशी को अलग-अलग तरीके से  श्रीमद भगवद गीता पढ़ने का प्रयास करती  हूं। कभी-कभी मैं केवल छंदों की आमद पढ़ता हूं जबकि कभी-कभी जब मैं अर्थ को संशोधित करना चाहती हूं तो मैं सिर्फ हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद को पढ़ती हूं। 

श्लोकों को पढ़ना अधिक पारलौकिक अनुभव लाता है क्योंकि यह वही यथारूप संवाद  है जो कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में भगवान श्री कृष्णा और अर्जुन का बीच संपन्न हुआ था, जबकि अन्य भाषाओं को पढ़ने से अर्थ को समझने में सहायता  मिलती है और यदि  कोई संस्कृत में बहुत कुशल नहीं है और दूसरों के साथ ज्ञान साझा करना चाहता है तोह उसे  शब्दावली बनाने में भी मदद करता है।

यहाँ इस लेख में, मैं एकादशी, आदि जैसे विशेष अवसरों पर भगवद गीता पाठ के प्रयोजनों के लिए एक प्रवाह में इसे पढ़ने के लिए केवल संस्कृत में संपूर्ण भगवद गीता लिख रही हूँ।यदि कोई केवल श्लोक ही  पढ़ना चाहता है तो मोटी  सी पुस्तक से पढ़ना थोड़ा मुश्किल होता है । इस लेख के  माध्यम से आसानी से आप कभी भी कहीं भी भगवद गीता का पाठ कर सकते हैं ।

हरे कृष्ण 

अद्ध्याय  १  अर्जुन विसाद  योग 

धृतराष्ट्र उवाच |
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥1॥

सञ्जय उवाच ।
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥2॥

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥3॥

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि |
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ: ॥4॥

धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान् |
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैयश्च नरपुङ्गव: ॥5॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् |

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा: ॥6॥

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम |
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥7॥

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जय: |
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥8॥

अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता: |
नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा: ॥9॥

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् |
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥10॥

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता: | 
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्त: सर्व एव हि ॥11॥

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह: |
सिंहनादं विनद्योच्चै: शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ॥12॥

तत: शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा: |
 सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥13॥


तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ | 
माधव: पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतु: ॥14॥

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय: |
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदर: ॥15॥

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: |
नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥16॥

काश्यश्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथ: |
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित: ॥17॥

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश: पृथिवीपते |
सौभद्रश्च महाबाहु: शङ्खान्दध्मु: पृथक् पृथक् ॥18॥

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् |
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो नुनादयन् ॥19॥

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वज: |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डव: ॥20॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते |

अर्जुन उवाच |
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥21॥

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥22॥

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता: |
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षव: ॥23॥

सञ्जय उवाच |
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥24॥

भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥25॥

तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थ: पितृ नथ पितामहान् |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृ न्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥26॥
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |

तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥27॥
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् |

अर्जुन उवाच |
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥28॥

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥29॥

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चै व परिदह्यते |
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: ॥30॥

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव |
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥31॥

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥32॥

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च |
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥33॥

आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: |
मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: सम्बन्धिनस्तथा ॥34॥

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते ॥35॥

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते ॥35॥

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् | 
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव ॥37॥

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: |
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥38॥

कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम् |
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥39॥

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना: |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥40॥

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय: |
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्कर: ॥41॥

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च |
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया: ॥42॥

दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकै: |
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ॥43॥

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन |
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥44॥

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् |
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता: ॥45॥

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय: |
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥46॥

सञ्जय उवाच |
एवमुक्त्वार्जुन: सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् |
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस: ॥47॥

आगे पढ़ने क लिए यहाँ क्लिक करिये 👉  श्रीमद भगवद गीता पाठ - अध्याय 2



































                                                                                        








 









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